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गुरुवार, फ़रवरी 28, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ६

अब तक के सभी भाग - १०
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गंगासरन जी नैराश्य भाव से ग्रस्त जड़ हुए खड़े रहे | चारों ओर क्या हाहाकार मच रहा था वे इस सब से अनभिग्य थे | अपने पिता के शिथिल तत्व तो अपने समक्ष देख उनके मस्तिष्क ने उनका साथ छोड़ दिया था | तभी कुछ लोगों ने आकर उनको झकझोरा और कहा,

"गंगा बाबू! आप यहाँ से लालाजी को लेकर निकल जाइए | दंगा भड़क गया है | बलवाइए कभी भी यहाँ आ सकते हैं | ऐसा न हो आप भी मुसीबत में पड़ जाएँ | घर पर औरतें अकेली हैं | जाकर उन्हें संभालिये  |"

अचानक ही उनका मौन भंग हुआ और वो अपनी विषम परिस्थिति को सँभालते हुए बोले,

"कल्लू भाई! कुछ लोगों को ले कर आप मेरे साथ चलिए | पिताजी को मैं अकेले नहीं ले जा पाउँगा | कृपया आप मेरी मदद कीजिये | मुझमें साहस नहीं इतना के ऐसी स्तिथि में, मैं स्वयं  माताजी का सामना कर सकूँ |"

कल्लू ने तुरंत कुछ लोगों को बुलवाया और पिताजी को उठा घर की तरफ रवाना हो गए | हवेली पहुँचते ही बहर आहते में जानकी बाबु के पार्थव शरीर को रख दिया गया | अन्दर से नौकर भागे भागे आए, बाबूजी की दशा देख शुब्ध रह गए | सबके चेहरे पीले पड़ गए | किसी ने ऐसे मंज़र की कभी परिकल्पना भी नहीं की थी  |

गंगा बाबु की माताजी और अनारो देवी जैसे ही दरवाज़े पर पहुंची तो अपने समक्ष ऐसा हृदयविदारक दृश्य देख वहीँ स्थिर हो गए | माताजी के प्राण सूख गए | एकटक टिकटिकी बांधे वो अपने प्रिये को निहारती रहीं | खामोश अश्रुपूरित नयन, गंगा बाबु से सवाल कर रहे थे,

"मैंने पिताजी को तुम्हारे भरोसे भेजा था | ये क्या हो गया |"

गंगा बाबु की नज़रें भी पीड़ित ह्रदय से माताजी को देख रही थी और खामोश थीं | उनके मर्मस्पर्शी बैनो का सामना करने की क्षमता उनमें कहीं से कहीं तक बिलकुल भी नहीं थी | वे सर को झुकाए अपने अन्दर ही व्यथित दशा से ग्रसित खड़े रहे |

कल्लू नाई, ने सभी को खबर करने की ज़िम्मेदारी उठाई और घर घर जाकर सभी को इस दुखद समाचार से अवगत कराया | तुरंत ही एक कारिन्दा मुरादाबाद अनारो देवी के घर भी भेजा गया | धीरे धीरे लोग शोक व्यक्त करने आने लगे और अंतिम विदाई का सामान भी जमा होने लगा | समय की ऐसी हृदयस्पर्शी परिक्रिया के चलते सुबह होने को आई थी और लोगों का तांता लगभग लग चुका था |

जानकी बाबु को श्रधांजलि देने के लिए शहर का बड़े से बड़ा अलिफ़ कालिफ़ अफसर तो क्या छोटे से छोटा कारिन्दा भी पहुँच गया था | उनकी अकलमंदी, सेवाभाव, उदारता, भलमनसाहत, अपनेपन, खुशमिजाज़ और मिलनसार रवैये और आदत के कारण शहर भर के लोगों में उनकी उठ बैठ थी | हर एक इंसान उनका मित्र था | जिसको भी उनके बारे में मालूम हुआ वही उलटे पैरों उनके घर सांत्वना देने पहुँच गया |

वहां मुरादाबाद खबर मिलते ही साहू साब आनन् फानन में मेरठ के लिए निकल लिए | उन्हें सुनकर विश्वास नहीं हो रहा था के ऐसा कैसे हो गया | जैसे तैसे पौ फटने तक साहू साब भी पहुँच गए | अपने साथ में वो कुछ लोगों को भी लाये थे | पहुँचते ही उनकी बुज़ूर्गियत का तज़ुर्बा और ऐसी परिस्थिति में माहौल को सँभालने का अनुभव काम आया | उन्होंने तुरंत ही गंगासरन और उनके परिवार को सहारा और सांत्वना दिया और अंतिम क्रिया की तयारी पूर्ण करवाने हेतु कार्यवाही शुरू करवा दी |

बड़े ही भारी और शोकाकुल मन से जानकी बाबु की अर्थी को कन्धा दिया गया | कलावती देवी अभी भी खामोश थी | उनकी आँख के आंसू सूख गए थे और वो खुद भी शिथिल पड़ चुकीं थीं | जानकी बाबु को अर्थी पर अपने से दूर जाते देख उन्हें बहुत ही तीक्ष्ण ह्रदयघाती सदमा लगा और उन्होंने भी अपने प्राण वहीँ त्याग दिए | महिलाओं के बीच हाहाकार मच गया | शोक की लहर दौड़ गई | सभी आपस में कानाफूसी करने लगीं,

"अरे ये क्या हो गया | कोई डाक्टर को तो बुलाओ | ये तो एक दम ठंडी पड़ गईं | अरे देखो इनमें तो जान ही नहीं बची | जानकी बाबु के साथ कलावती देवी भी स्वर्ग सिधार गईं | इतना प्यार था दोनों में के पति के जाने का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई | पति के साथ ही निकल गए इनके प्राण भी |"

हवेली से आते शोर को सुनकर सभी रुक गए | एक आदमी ने जाकर देखा तो जानकी देवी के बारे में मालूम हुआ | उसने तुरंत आकर सबको यह मर्मस्पर्शी खबर सुनाई | गंगा बाबु तो सुनते ही अचेत हो गए | साहू साब ने आगे बढ़कर स्तिथि का संचालन किया और सब कुछ संभाला | जैसे तैसे गंगा बाबू को होश में लाया गया | दोनों अर्थियां तैयार थीं | गंगासरन तो अब पूरी तरह से टूट चुके थे | उनके शोक का अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता था | एक ही रात में माता पिता और व्यापार के खत्म होने का दुःख उनके ऊपर हावी होता साफ़ नज़र आ रहा था | पिताजी से विच्छेदन की पीड़ा क्या कम थी जो माता जी भी | ऐसी अवस्था में सिर्फ साहू साब का ही सहारा था | उन्होंने गंगासरन को ढाढस बंधाया और उन्हें शांतिपूर्वक माता पिता की अंतिम क्रिया करने के लिए हिम्मत दिलाई |

बहुत ही शोकाकुल परिमंडल में मातापिता का देह संस्कार हुआ | परन्तु इतने कम समय में भी इंतज़ाम में कोई कमी नहीं थी | टनों के हिसाब से चन्दन की लकड़ियाँ, देसी घी के टिन और बाकि ज़रूरियात का सामन मुहैया करने में साहू साब और गंगा बाबु ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | बहुत ही भव्य तरह से माता पिता को अंतिम विदाई देकर और उनकी अस्थि विसर्जन संस्कार से निवृत होकर अब गंगा बाबु अपनी हवेली पर वापस आ चुके थे |

माता पिता का तीजा और तेहरवी के लिए पंडितों को भुलावा भेजा जा चुका था | भव्य भोज का आयोजन किया गया था | गरुड़ पुराण का पाठ आरम्भ करवा दिया गया था | शहर में सभी को सूचित करवा दिया गया था के गंगा बाबु की हवेली पर तेहरवी के दिन सभी को शिरकत करनी है | हर प्रकार से अपने माता पिता को स्वर्ग में स्थान दिलाने के लिए उन्होंने जो बन पड़ा किया | साहू साब के मार्गदर्शन में सभी काम शांति के साथ निपट गए थे | माता पिता भले ही अकस्मात् गंगा बाबु को बीच मंझधार छोड़ गए थे परन्तु उनका आशीर्वाद हमेशा उनके साथ बना हुआ था | अब तो साहू साब का हाथ भी उनके सर पर था |

समय ने सारे दुखों को भर दिया | मंद गति से समय भी पंख पखेरू हो गया | पीड़ा से बहार आते आते और काम को फिर से सँभालते साल गुज़र गया | परन्तु गंगा बाबु का व्यापार दोबारा उस तरह से जुड़ नहीं पाया | एक तरफ तो स्वदेशी आन्दोलन दूसरी तरफ भारत के विभाजन और भारत को स्वतंत्र करने की योजनाओ के चलते हुए दंगे फसाद ने कारोबार को एक दम ठप्प कर दिया था | उधर गंगा बाबु भी अकेले कब तक मशक्कत करते और हालातों से झूझते और लड़ते | उन्होंने इस मामले में साहू सब की राय लेना उचित समझा | उन्ही की सलाह पर और समझाने पर उन्होंने मेरठ छोड़ कर मुरादाबाद जाकर बसने का फैसला कर लिया |

धीरे धीरे गंगा बाबु ने सब कुछ बेच दिया | कारोबार, गोदाम, ज़मीन जायदाद, खेत खलिहान और आख़िरकार हवेली का सौदा भी हो गया | कार्तिक मास की पूर्णमासी का दिन था | गंगा बाबु ने अपने पुरखों की भूमि मेरठ को सदा के लिए अलविदा कहा | अनारो देवी, बिटिया और साहू साब के साथ हमेशा के लिए मुरादाबाद में जा बसे | क्रमशः

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इस ब्लॉग पर लिखी कहानियों के सभी पात्र, सभी वर्ण, सभी घटनाएँ, स्थान आदि पूर्णतः काल्पनिक हैं | किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत या किसी भी घटना या जगह की समानता विशुद्ध रूप से अनुकूल है |

All the characters, incidents and places in this blog stories are totally fictitious. Resemblance to any person living or dead or any incident or place is purely coincidental.
 

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ५

अब तक के सभी भाग - १०
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शाम होने तक अनारो देवी उनकी बाट जोहती रहीं | और सांझ ढलते ढलते गंगा सरन जी बेला और चमेली के गजरे लिए घर पर पधार चुके थे | घर पहुँचते ही उन्होंने अनारो देवी से पुछा,

"सुनिए क्या आप तयार हैं चलने के लिए ?"

अनारो देवी तैयार थीं | उन्होंने गंगा सरन जी द्वारा भेंट में दी हुई साड़ी बाँध रखी थी | कानो में झुमके, आँखों में काजल, माथे पर कुमकुम की बिंदिया, मांग में सिन्दूर, गले में मंगल सूत्र, कमर में सोने की तगड़ी, हाथों में जडाऊ कड़े और पाँव में छम छम करती पाज़ेब पहने वो एक दम महारानी लग रही थीं | उनके मुखमंडल पर तेज तो था ही परन्तु प्यार और दुलार की आभा ने उनके ललाट को और भी ज्यादा प्रकाशमान कर दिया था | उनके व्यक्तित्व का तेज दिव्यज्योति बन चारों ओर विद्यमान हो रहा था | उन्होंने मंद सी मुस्कराहट के साथ बड़ी ही शिष्टता और शालीनता से बिना कुछ कहे सर झुका दिया | वो समझ गए और बोले,

"आज तो आप क़यामत बरसा रही हैं | आपके रूप में साक्षात परीलोक की देवी की आभा झलक रही है |  आज तो अगर भगवान् भी आपको देख लें तो उनका भी ईमान डोल जाये | इससे पहले के मैं आपके सौन्दर्य के सैलाब में बह जाऊं और मेरा ह्रदय परिवर्तन हो जाये चलिए चलते हैं | कहीं मैटनी न छूट जाये |"

अनारो देवी शर्म से लाल होते, लजाते और आँखे चुराते हुए हौले से बोलीं, "रहने भी दीजिये | क्यों ठीठोली करते हैं | ऐसी बातें शरीफ घर के कुमारों को शोभा नहीं देतीं | जाइए माताजी और पिताजी से आज्ञा ले लीजिये | उन्हें अभी तक घूमने जाने के बारे में कुछ नहीं बताया है |"

वो बोले, "उन्हें तो मैंने कल ही सब कुछ बता दिया था | पिताजी ने ही तो अपने मित्र चौधरी साहब से कहकर टिकटें मंगवाई हैं | वो मैटनी हाल के मालिक हैं न | अब चलें वरना देर हो जाएगी |"

उस शाम दोनों ने ज़िन्दगी की पहली सांझ साथ बिताई | इसी तरह ज़िन्दगी का सुनेहरा वक़्त गुज़रता चला गया | महीनो बीत गए | समय हवाई घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता रहा | अचानक एक दिन अनारो देवी ने माताजी को वो खबर बतलाई जिसका किसी को भी अंदेशा न था | खासकर इतनी जल्दी तो नहीं | अनारो देवी उम्मीद से थीं | खबर के सुनते ही सबके दिलों में अरमानो के चिराग जल उठे और सभी लोग उन्हें और ज्यादा प्यार, आदर और सम्मान देने लगे | साथ ही साथ हर एक तरह से उनका ख्याल रखा जाने लगा |

आखिर ख़ुशी का दिन आ ही गया | अब अनारो देवी पंद्रह वर्ष की आयु में प्रवेश कर चुकी थी | इसी आयु में उन्होंने अपनी पहली संतान एक चाँद सी और सुन्दर फूल सी कोमल बिटिया को जन्म दिया | हर तरफ खुशियाँ और प्रसन्नता की लहर दौड़ गई | घर में सभी की लाडली आ गई थी | दादा और दादी की नज़रें तो कभी भी उसके चेहरे से हटती ही न थीं | कहते हैं न मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है | तो अब तो ब्याज की किलकारियां, मुस्कराहट, अदाएं, रुदन, हंसी से समस्त आँगन भर गया था | किसी राजकुमारी की तरह से उसका लालन पालन हो रहा था |

तुरंत ही ये खबर एक सन्देश वाहक के ज़रिये उनके पिता साहू साहब के यहाँ भिजवा दी गई |

साहू साहब भी कहाँ रुकने वालों में से थे | तुरंत नौकरों को आदेश दिया,

"बाज़ार जाओ और हलवाई से कहना साहू साब नाना बन गए | अनारो के बिटिया आई है | उसकी सुसराल जा रहे हैं | उनके यहाँ मिठाई जाएगी | इक्कीस तरह की जो भी सर्वश्रेष्ट मिठाइयाँ है सभी पांच पांच सेर बंधवा दो | ध्यान रहे के उन सभी मिठाइयों में काजू की कतली, पिश्ते की कतली, मेवा पाक, करांची का हलवा, सोहन हलवा, कड़ाके का हलवा, जलेबियाँ, गुलाब जामुन, कालाजाम, मलाई चाप, चम् चम्, गाय के दूध की खुरचन, ताज़ा बना अंगूरी और केसरी पेठा ज़रूर हो | ताज़े फलों के ग्यारह टोकरे भी लगवाओ और ध्यान करना के कोई भी फल रखने से रह न जाये | ग्यारह थाल सवा सेर मेवा के भी सजवाओ | ग्यारह देसी घी के टिन, ग्यारह सेर ताज़ा बना हुआ गुड़, ग्यारह सेर केले, इक्कीस पानी वाले नारियल बड़े और बढ़िया वाले, पांच सेर नौरंग लाला के यहाँ का मेवा वाला नमकीन, छब्बन के यहाँ से ग्यारह तरह का अचार और ग्यारह तरह के मुरब्बे तुरंत बंधवा लाओ | मैं जाकर कपडे और गहने लेकर आता हूँ | समय बिलकुल नहीं है फ़ौरी तौर पर ही निकलना है |"

थोड़े ही समय में नौकर ने सारा सामान बंधवा दिया |

लालाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी | अपनी नातिन के लिए इक्यावन जोड़ी के कपड़े, ग्यारह जोड़ी नज़रिए, सोने के कंगन, चांदी की पाज़ेब, कमर की तगड़ी, नज़र का कला धागा और सोने की नाक की नालकी खरीद ली | समधीयों के लिए कपड़े और पांच तोले का सोने का सिक्का | दामाद जी के लिए ग्यारह जोड़ी कपड़े और दस तोले सोने की चैन | अनारो के लिए ग्यारह जोड़ी कपडे और गहने उन्होंने आनन फानन में खरीद डाले थे |"

सभी सामान एक गाड़ी में रखवा कर उन्होंने सन्देश वाहक और एक नौकर को उसमें बैठा दिया और स्वयं अपनी गाडी में बैठ कर सन्देश वाहक को साथ ही निकल पड़े |

सुसराल पहुँच कर उन्होंने सबसे पहले अपने समधी से मुलाक़ात की और उन्हें बधाई दी | उनके साथ आया नौकर पीछे से बोल पड़ा,

"हुज़ूर यह सामान कहाँ रख दूं ?"

साहू साब मिजाज़ से गुस्सैल तो थे ही बोले, "अबे मेरे सर पर रख दे | जा अन्दर जाकर हवेली की रसोई में खाने पीने का सामान रखवा दे | बाकी का सामान मैं खुद अनारो को दूंगा |

साहू साब ने एक एक कर के लाये उपहार बाइज्ज़त सबके हाथों में दिए | इतना सारा सामान और मिठाइयाँ आदि देख कर जानकी प्रसाद जी बोल पड़े,

"साहू साब आप आए इससे बड़ी बात और क्या होगी पर इतना सामान कुछ ठीक नहीं लगता | "

"साहू साब ने फ़रमाया, अजी साब क्यों तकल्लुफ वाली बातें करके शर्मिंदा किया करते हैं आप | हम तो बेटी वालें हैं, देना तो हक बनता है | और फिर अभी तो देवी माँ ही पधारी हैं अगली दफा ज़रा नन्दलाल को आने दीजिये फिर रौनक देखिएगा |"

और फिर दोनों दिल खोल कर हंसने लगे | जानकी प्रसाद जी बोले, "आप अनारो से मिल लीजिये और हाथ मुंह धो लीजिये फिर आराम से वार्तालाप और गपशप करते हैं |"

साहू साब को सामने देख अनारो की आँखें छलक गई, भाग कर अनारो उनके गले लिपट गईं और उन्होंने रुंधे गले से पुछा, "कैसे हैं पिताजी ? आपकी बहुत याद आई | "

साहू साहब सँभालते हुए बोल पड़े, "पगली! रोती क्यों है | देख मैं तो भला चंगा हूँ | अब तो ख़ुशी से और भी फूल गया हूँ | देख मैं तेरे लिए क्या क्या लाया हूँ | अपने साथ लाये सभी उपहार, गहने और कपडे अनारो को देने के बाद पूछा,

"मेरी छोटी अनारो कहाँ है ?"

अनारो ने पालने की तरफ इशारा किया और बोली, "वहां आराम फरमा रही हैं मोहतरमा |"

साहू साब आगे बढे और बिटिया को गोद में उठा लिया | थोड़ी देर नज़र भर के उसे निहारा और फिर पलने में वापस लिटा दिया | अनारो की आँख से थोडा सा काजल ऊँगली पर लेकर बच्ची माथे पर लगा दिया | फिर जेब से इक्यावन हज़ार रूपये निकले और उसके सिहराने रख कर बोले,

"गुडिया, ये नानाजी का आशीर्वाद है | जल्दी से बड़ी हो जाओ फिर लेने आऊंगा | फिर नाना का घर भी अपनी चांदनी से आबाद करना | अरसा हुआ, हवेली में किसी की किलकारी सुने हुए | पिछली दफा बस तेरी माँ के रोने और हंसने की आवाज़ याद है मुझे तो | अब तू आ गई है | तेरे साथ खूब खेलूँगा |"

इतना कहकर पलटे और अनारो से पुछा,

"जमाई राजा कहाँ हैं? जल्दी से उनसे भी मिल लेता हूँ | फिर आज ही वापस भी जाना है | फ़सल खड़ी है | फ़सल काटने के काम ज़ोरों पर है | मेरे अनुपस्थित होने से सब कामचोर मनमानी करेंगे | इसलिए आज ही वापस जाना होगा | वो तो खुशखबरी ऐसी सुनी तो रहा न गया और दौड़ा आया | "

उन्होंने अनारो को ढ़ेरों आशीर्वाद दिए | अपनी सेहत और संतान का ख्याल रखने की सलाह दी |  जमाई राजा से मिलकर उन्हें उपहार, बधाई और आशीर्वाद दिए | रात हो गई थी | सबने उनसे रुकने का बहुत आग्रह किया  परन्तु जय राम जी की कर साहू साब जिन पैरों आए थे उन्ही पैरों वापस लौट गए |

ऐसे ही हँसते खेलते और गुनगुनाते हुए शादी के कुछ बरस और बीत गए | अनारो देवी भी अब जीवन के अट्ठारह सावन पार कर चुकीं थी | करोबार और घर के हालात अपने शिखर को छु रहे थे | गंगा सरन जी का कारोबार आज आसमान की बुलंदियों पर था और पाताल की गहराइयों तक उसकी जडें जम चुकी थीं परन्तु देश के हालत दिनों दिन बिगड़ रहे थे |

देश को आजाद करवाने की कवयातें दिनों दिन जोर पकडती जा रही थी | इसके चलते एक अभियान ने उनके जीवन को ऐसा पटका के उसका झटका कहर बन उनके परिवार पर ऐसा बरपा के रातों रात सब कुछ नष्ट हो गया | हिन्दुस्तान में स्वदेशी आन्दोलन जोर पकड़ रहा था | जगह जगह विदेशी माल की होली हो रही थी | गंगा सरन तो विदेशी माल के बहुत बड़े व्यापारी थे | एक रात अचानक आधी रात जानकी प्रसाद जी के हवेली के दरवाज़ों पर ज़ोरों के दस्तक बज उठी | घर में सभी चौंक कर उठ बैठे | सभी की दिलों में घबराहट और बेचैनी थी के इतनी रात गए क्या हुआ ? कौन है जो इतनी जोर जोर से दरवाज़ों को पीट रहा है | घर के नौकर ने जाके पुछा,

"कौन है भैया इतनी रात गए ?"

बहार से आवाज़ आई, "भैया जल्दी से दरवाज़ा खोलो | गंगा बाबु से मिलना है | जानकी बाबु को बुलाओ | बहुत अनर्थ हो गया है |"

नौकर ने दरवाज़ा खोल दिया | सामने कल्लू नाई खड़ा था | उसके साथ कुछ और लोग भी थे | गंगा सरन जी और उनके पिताजी दौड़ कर दरवाज़े पर आए और पुछा,

"अरे कल्लू तू ! क्या हुआ ? इतने घबराये हुए क्यों हो कल्लू ? कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ? आसमान सर पर क्यों उठा रखा है ?"

"बाबूजी अनर्थ हो गया जल्दी चलिए | स्वदेशी आन्दोलन वालों का हुजूम आया था | उसने आपके गोदामों और दूकान सभी की होली कर दी | सब कुछ ध्वस्त हो गया | जल कर खाख हो गया | कुछ भी नहीं बचा | हमने समझाने की बहुत कोशिश की परन्तु किसी ने एक न सुनी | और तो और उन्होंने बाज़ार की और भी कई दुकाने फूँक डालीं जो विदेशी माल का व्यापार करते थे |"

कल्लू की बात सुनकर सबको बड़ा धक्का लगा | किसी ने इसके बारे में सोचा तक न था | ऐसा उनके साथ भी हो सकता है इसका ख्याल किसी के भी ज़हन में आज तक नहीं आया था | वो शहर के बड़े व्यापारियों में से एक थे | ऊपर तक उनकी पहुँच थी | वे आश्वस्त थे की उनके ऊपर कोई आंच नहीं आएगी | सभी तुरंत मिलकर बाज़ार के लिए निकल पड़े | साथ जाते वक़्त आधे रस्ते ही जानकी प्रसाद जी को अतितीव्र ह्रदयघात हुआ | दूकान पहुँचते पहुँचते ही उनकी हालत काफी बिगड़ गई और उनके प्राण पखेरू वहीँ ब्रह्मलीन हो गए | गंगा सरन कुछ समझ नहीं पा रहे थे | उनके साथ इतना कुछ अचानक हो गया था के वो कुछ भी सोचने, समझने और कहने की स्तिथि से परे जा चुके थे | वो निःशब्द, मौन हुए निष्क्रिय, प्राण विहीन अपनी पिता को एक टक देख रहे थे और दूसरी तरफ ख़ामोशी के साथ स्थिर खड़े अपनी बरसों की मेहनत को धधक धधक कर स्वाह होते हुए | उनके स्वर मौन थे और दिमाग शांत हो चुका था | किसी मूक दर्शक की भांति अपने सामने घटने वाली नियति की लीला को वो समझ नहीं पा रहे थे |

किसके लिए रोयें | पिता की अकस्मात् मृत्यु होने पर या फिर अपने जीवन के समस्त परिश्रम से अर्जित पूँजी के भस्म हो जाने पर | ऐसी परिस्थिति में उनकी मनोदशा अत्यंत वेदना पूर्ण थी | उनके पिताजी शायद खुशकिस्मत थे के परलोक सिधार गए थे | परन्तु गंगा सरन जी की अवस्था न जीवित में थी न मृत में |  क्रमशः

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शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ४

अब तक के सभी भाग - १०
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उस दिन दोनों घंटो सोये | छोटे से शिशु की भांति नींद कैसे दोनों को थपथाती रही पता ही न चला | सुबह उठते ही अनारो बिजली की गति से तयार हो कर रसोई में जा पहुंची | महाराज ने उत्सुकता और आश्चर्य से पुछा, 

"बहुरिया, इहाँ कईसे ? कछु चाहियें का बताई दो कमरा में भिजवा देत हैं |"

इतना सुनते के साथ ही अनारो हंस पड़ीं | कहने लगीं, "नहीं काका, आज आपकी छुट्टी | आज सबके लिए नाश्ता और भोजन मैं बनाउंगी |" 

महाराज मुंह बिचका कर बोले, "ए हे, बिटिया, बिलांद भर की तो तुम हो अभी, इत्ता जन का खाना कईसन बनाब ? तुम्हरी तो अभौ खेलत का उम्र भयी | नई नवेली दुल्हन हो तुम,  जाओ बिटिया जाके आराम करौऊ |"

अनारो ने सब कुछ सुनते सुनते ही हाथ में करछी थाम ली और जुट गईं काम में | सूजी और मेवा का हलवा, टिमाटर और धनिये वाले आलू, धनिये और इमली की चटनी, मिस्सी पूरी और केसरी लस्सी ऐसे तयार कर डाली मानो कोई बच्चों का खेल हो | पाक कला का ऐसा अद्भुत प्रदर्शन देख महाराज का मुंह, हाथ के साथ और भी पता नहीं क्या क्या खुला रह गया | भागे भागे महाराज रसोई से बहार आए और कलावती देवी को पुकारते हुए बोले, 

"माई अरी ओ माई, तुम बहुरिया लाईस हो या जादूगरनी ? फिरकनी की तेजी से इत्तो खानों बना दियो मोड़ी ने | कहाँ से ढूँढ लाइ लल्ली को | जा तो अन्नपूर्णा है अन्नपूर्णा | हाँ | ठाकुर जी भला करें बहुरिया का | अब तौ हमौ का भी आराम मिल जाई |"

जितने कलावती देवी महाराज की बात सुनकर कमरे से बहार तशरीफ़ लातीं, उतने समय में तो पूरा खाना दस्तरखान पर लगाया जा चुका था | और अनारो देवी इंतज़ार कर रही थीं के कब घर के सभी सदस्य एकत्र हो कर सुबह के भोज का आनंद प्राप्त करेंगे | 

धीरे धीरे सभी खाने के लिए रसोई में पधार गए | जानकी प्रसाद जी बोले, "महाराज नाश्ता परोसें |"

इतना सुनना था के अनारो झट से थाली ले आई और सबसे पहले उनके आगे धर दी और नाश्ता परसने लग गईं | उनको खाना परस्ते देख पिताजी बोल पड़े, "अरे बेटा, तुम नहीं | महाराज हैं न | तुम्हारी तो अभी नई नई मेहंदी रची है | जाओ आराम करो, खेलो कूदो, जो जी में आए वही करो बिटिया वरना मेहंदी ख़राब हो जाएगी |"

पिताजी की बात सुन अनारो देवी मुस्करा कर बोलीं, "बाबूजी, जो दिल में आ रहा है वही तो कर रही हूँ | अपनों को खिलने से जो ह्रदय को सुकून पहुँचता है उसपर ऐसी कई मेहंदियाँ कुर्बान | आज मैंने बड़े मन से और चाव से आप सबके लिए नाश्ता बनाया है | आप चख कर आशीर्वाद देंगे तो मेरा प्रयास सफल हो जायेगा | आप चखेंगे न ?"

लाला जानकी प्रसाद का मुख मंडल खिल उठा | बांछे मुस्कराने लग गईं |  उनके घर में प्राण फूंकने वाली गुड़िया आ गई थी | सभ्य, सोम्य और संस्कारी | उन्होंने तुरंत उसके सर पर हाथ रखा और कहा, "ज़रूर बिट्टो, तेरे हाथ का अन्न तो अमृत है | आज तो दो गुना भोजन ग्रहण करूँगा | और दिल से आशीर्वाद भी दूंगा | ला थल्ली परस दे और सबसे पहले तो हलवा खाऊंगा और हाँ आज मुझे मीठा खाने से कोई नहीं रोकेगा, सुना सबने | आज तो जी भर लस्सी का पान करूँगा"
  
इतना सुनते ही सब जोर जोर के ठहाक़े लगाने लग गए | अनारो ने जल्दी जल्दी हिरनी की फुर्ती से सबकी थाली परस दी | गंगा सरन जी भी ये सब देख मंद मंद मुस्का रहे थे और स्तिथि का आनंद मूक दर्शक बन उठा रहे थे | एक एक करके अनारो ने सभी को अपने हाथों से खाना पर्सा | देसी घी की गरमा गर्म पूरियां उतार कर सभी को सामने थाली में परसीं | सभी पहले दिन ही अनारो की वाह वाही करने में लग गए | आज साहू साहब की सिखाई शिक्षा में उत्त्तीर्ण होने का समय था | अपने पिता के दिए संस्कारों को सिद्ध करने का समय था |  अपने पिता का सर गर्व से ऊँचा करने का दिन था | 

अनारो द्वारा बनाया खाना खा कर सब उनके गुणगान करने लग गए थे | सभी आश्चर्यचकित थे के इतनी कम उम्र में ऐसी कुशलता, एक सभ्य और कुलीन घराने की महिला में ही हो सकती है | जिसकी परवरिश में ऐसे संस्कार मिलें हो ऐसी महिला हमेशा घर को अपने आँचल में बाँध कर रखती है | और यही सारे गुण सभी परिवार जन को उनमें नज़र आ चुके थे | वे सब निश्चिन्त थे के अब गंगा सरन जी का साथ देने एक सर्वश्रेष्ठ नारी का चयन करने में उन लोगों ने कोई चूक नहीं की है | उनकी सारगर्भित बातों से और उनके मन को लुभाने वाली अंदाजों से सभी मंत्रमुग्ध हो उनके व्यक्तित्व से जुड़ते जा रहे  थे | और वो भी अपने स्नेह और खुशमिजाजी से सभी के दिलों में बसती जा रही थी | 

नाश्ते के पश्चात सभी अपनी उँगलियाँ चाटने में लगे थे | खाने के स्वाद की और बनाने वाली की  तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे | काश उस समय मोबाइल होता तो आज अनारो जी का वो रूप संजोया जा सकता | पिताजी ने अनारो को पास बुलाया और अपनी जेब से निकल कर सारे पैसे उनके हाथों में रख दिए और दिल से आशीर्वाद दिया | माताजी ने अपने गले से सोने की चैन उतार कर उसे पहना दी | घर के बाक़ी सदस्यों ने भी कुछ न कुछ भेंट उन्हें दी | परन्तु वहां गंगा सरन जी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे | वो प्लेट समेत नदारत थे | उन्हें ढूँढ़ते ढूँढते वो अपने कमरे में पहुँच गईं और वहां क्या देखती हैं एक सुन्दर सी बनारसी सिल्क की जारी वाले बॉर्डर की साड़ी हाथ में लिए गंगा सरन जी खड़े हैं | अनारो को देखते ही बोले, 

"आईये, आप की ही प्रतीक्षा में था | मुझे ज्ञात नहीं आपके हाथों में माता अन्नपूर्ण का वास है | बहुत ही स्वादिष्ट भोजन था | मन तो करता है के आपके.....कहते कहते वो वहीँ रुक गए | लीजिये आपका इनाम | एक छोटी सी भेंट मेरी तरफ से | आशा करता हूँ आपको पसंद आएगा मेरा तोहफा | बताइए कैसा लगा ?"

अरे भई, "अँधा क्या चाहे दो आँखें", साड़ी और वो भी बनारसी सिल्क की | अनारो देवी चहक उठीं | ख़ुशी में उछल पड़ीं | उनकी सबसे बड़ी खवाइश आज बिन मांगे पूरी हो गई थी | उन्हें उपहार स्वरुप ही बनारसी साड़ी मिली थी जो उन्होंने आज तक सिर्फ या तो अंग्रेजी पार्टियों में पहने गोरी चमड़ी वाली मेमों को देखा था या फिर हिंदी फिल्मों में | जी हाँ फिल्मों का भी बेहद शौक रखती थीं | उन्होंने तुरंत साड़ी कंधे से लगा कर पुछा, 

"सुनिए! मैं कैसी दिखती हूँ?" 

"एक दम अप्सरा | शाम को तयार रहिएगा | आपको घुमाने ले चलूँगा और मैटनी भी दिखाऊंगा | और शाम को आपके लिए एक और ज़बरदस्त अचरज भी तयार है | पर एक शर्त है ?"

वो बोलीं, "वाह जी वाह, शर्त काहे की  ? ब्याह कर लायें हैं आप, अब तो मेरी सारी इच्छाएं आप ही पूरी करेंगे | यदि मैं आपकी हूँ तो मेरी हर ख्वाइश भी तो आपकी ही हुई |"

इस बात पर गंगासरन जी ठहाका लगाकर हँसे और बोले, “जी हाँ ! ज़रूर होम मिनिस्टर साहिबा ज़रूर" | चलिए चलता हूँ, शाम को लौट कर मिलता हूँ | हलवा सच में बहुत ही स्वादिष्ट था कहते हुए गंगा सरन जी दूकान की ओर कूच कर गए | क्रमशः

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मंगलवार, फ़रवरी 19, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग ३

अब तक के सभी भाग - १०
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गाजे बाजे और रौनाकों के बीच से होते हुए, एक दुसरे का हाथ थामे वे दोनों हवेली के अन्दर चल दिए | अनारो देवी और गंगासरन अपने पिताजी और माताजी के साथ हवेली के प्रवेश द्वार पर पहुंचे | वहां पहले से ही परिवार के लोग स्वागत की तयारी किये मौजूद थे | चावल से भरी हांड़ी को हवेली की ड्योढ़ी पर रखा गया था | और नव युगल के आरते का थाल लिए परिवार के अन्य सदस्य बड़ी ही बेसब्री से दोनों की बाट जोह रहे थे | द्वार पर पहुँचते ही कलावती देवी ने अनारो के कान में धीरे से फुसफुसाया,

"बिटिया आरते के बाद, दाहिना पाँव उठाकर धीरे से ठोकर देकर चावल की हांड़ी को गिरना |"

अनारो ने धीरे से गर्दन हिलाकर समझने का इशारा किया | कलावती देवी तुरंत घर के अन्दर प्रवेश करती हैं और आरते की थाली लेकर दोनों की आरती उतरती हैं और फिर नज़र से बचने के लिए दोनों के सर से लाल मिर्ची वार फेर कर के आंच में डलवा देती हैं | अनारो धीरे से हांड़ी को पाँव से गिराकर ग्रेहप्रवेश करती हैं | प्रथम कदम घर में रखते ही उनके सामने सिन्दूर से भरा थाल प्रस्तुत कर दिया जाता है और कहा जाता है के,

"बहुरानी तुम तो लक्ष्मी का रूप हो, अब अपने दोनों पाँव इस आलते के थाल में रखकर खड़ी हो जाओ | फिर पहले अपना दायाँ पाँव बहार निकलना और ज़मीन पर इस सोच और प्रभु से प्रार्थना के साथ रखना के, हे प्रभु! मेरे और मेरे परिवार के जीवन में धन-धान्य, सुख-समृद्धि, अन्न-भोजन, लाड-प्यार, करुना-दुलार, आचार-विचार, आशा-अभिलाषा और मान-सम्मान की सदैव नदिया बहती रहें | मेरे पति के कारोबार में वृद्धी-समृद्धि बनी रहे | आरोग्य जीवन तथा निरोग्य काया हमेशा बरक़रार रहे | समस्त परिवारजन का स्नेह-आशीर्वाद मेरे सर पर बना रहे |  इस सोच, विचारधारा और सुमति के साथ ही अपने शुभ चरण कमल के निशान से हमारे घर आँगन को पवित्र करना |"

अनारो देवी ने ठीक वैसा ही किया | बुजुर्गों की बात और मंशा का मान रखते हुए उन्होंने अपना सर्वप्रथम चरण अपने नेक इरादों और मंगल मनोकामनाओं के साथ आहिस्ता से ज़मीन पर रखा | अपने पीछे पावों के निशान फर्श पर छापते और छोड़ते हुए वो धूम धाम और पूरे आदर सत्कार के साथ घर में दाखिल हो गईं |  

एक नव विवाहित स्त्री के लिए उसकी सच्ची और सुलझी हुई सकारत्मक, आशावादी, धनात्मक, प्रत्यक्षवादी और निर्णायक सोच ही प्रायः उसके जीवन में आने वाले सुखों का कारण बनती है | बुजुर्गों ने कहा भी है के "जैसी होती सोच वैसा मिलता भोज" | इसी के साथ अनारो देवी के नए जीवन की नई सुबह आरम्भ हुई | 

विवाह उपरान्त के बाद सुसराल में सहजता से मन लगाने के लिए और सबसे घुलने मिलने के लिए अनेकों तरह के खले उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे | ये खेल इसलिए खेले जाते हैं के नई दुल्हन को स्वच्छंद और आरामदेह माहौल मुहैया कराया जा सके | जिसमें वो रमती चली जाये और आने वाले समय में उसे किसी भी तरह का कोई संकोच करने की ज़रुरत महसूस न हो |

इन सभी रस्मों रिवाज़ों से निवृत होते होते कब दोपहर हो गई पता भी न चला | अब दोनों पति पत्नी पूर्णतः पस्त हो चुके थे | अलसाई आँखे लिए दोनों जैसे तैसे रीति रिवाज़ों को पूरा कर रहे थे और मेहमानों की हंसी ठिठोली के पात्र भी बन रहे थे | तभी गंगासरन जी के पिताजी जानकी प्रसाद जी की कड़क आवाज़ आई,

"अरे भागवान, यदि सभी रस्में और कसमें निबट गईं हो तो अब लल्ला और बिटिया को थोड़ी देर आराम भी करने दो | बच्चे कब से जाग रहे हैं | देखो ज़रा दोनों की शक्लें नींद के मारे कैसे मुरझाये जा रही हैं | और बाकी सब मेहमानों को भी आराम कर लेने दो | हंसी मजाक के लिए तो अब ये दोनों यही हैं | सारी ज़िन्दगी है अभी मजाक्बाज़ी के लिए |  बहु बिटिया अब अपनी ही है कोई पराई नहीं |"

इतना कहते हुए वो दोनों के पास आए, सर पर हाथ फेरा और कलावती देवी से उन्हें अन्दर ले जाने को कहा |

अपने कमरे में दाखिल होते ही थकान से चूर चूर दोनों निढाल होकर धप्प से बिस्तर पर ऐसे गिर पड़े मानो कोई पेड़ काटने के बाद धरती पर गिरता है | कब दोनों निंद्रा की गोद में समां गए मालूम ही न चला | अब दोनों स्वछन्द रूप से स्वप्न नगरी में भ्रमण-विचरण कर रहे थे | सभी मेहमान भी आराम करने चले गए थे और सम्पूर्ण घर में एक सुखमय शांति का वातावरण जागृत हो गया था | क्रमशः

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सोमवार, फ़रवरी 18, 2013

श्रीमती अनारो देवी - भाग २

अब तक के सभी भाग - १०
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विदा हो अनारो देवी सुसराल के लिए रवाना होने को तयार थीं | मेरठ का सफ़र तक़रीबन दो-तीन घंटे का था | उनके पिताजी ने दहेज़ के साथ एक विशेष गाड़ी का प्रबंध भी किया था | उस समय गाडी में जाना बहुत रुतबे और शान की बात हुआ करती थी | साहू साब ने तो गाडी भी स्त्रीधन में ही दे दी थी | उनकी इस भेंट से सबके मुंह खुले रह गए थे | नम आँखे लिए वो गाडी में सवार हो गईं | और गाडी गंतव्य की ओर चल पड़ी | अनारो देवी दूर तक अपनी हवेली और अपने पिता को तान्क्ती रहीं । रास्ते भर गाडी में बैठी नवजीवन के सपने संजो रही थीं | चुप चाप सिमटी सी नाज़ुक गुडिया की भांति एक तरफ बैठी थीं | मनमोहक नयन अश्रुपूरित थे और पानी की छलकती बूँदें आकर कर उनके गालों को चमका रही थी ।

दूसरी तरफ उनके नव जीवन सहनर्तक चुपचाप मंत्रमुग्ध हो उन्हें निहार रहे थे | दोनों की उम्र में तकरीबन चार पांच वर्ष का अंतर रहा होगा | अनारो के मन में सिर्फ यही बातें चल रही थीं के कैसा होगा उसका नया संसार, नया जीवन, नए लोग, नया परिवेश | उनके लिए सब कुछ एक स्वपन के समान था | आखिर थी तो कच्ची उम्र ही | इनती छोटी उम्र में शादी कर किसी नए घर की ड्योढ़ी में कदम जमाना और वहां के तौर तरीक़े अपनाना कोई आसान काम तो नहीं था | पिता की लाडली को हर पल यही एहसास हो रहा था के पिताजी अकेले हो गए हैं | कैसे होंगे? तबियत ठीक होगी या नहीं? सुसराल में जाकर कैसा वातावरण मिलेगा | सास और सुसर कैसा व्यव्हार करेंगे | और भी ऐसे अनेकों सवाल उनके ह्रदय में हिचकोले खा रहे थे | पर बालक मन तो चंचल होता ही है | उन्होंने गंगा सरन जी की तरफ देखा और पूछ ही लिया,

“सुनिए वहां मेरे साथ खेलेगा कौन, कौन मुझे समझाएगा, कौन मेरे सवालों के जवाब देगा, कौन मुझे नई चूड़ियाँ लाकर देगा, कौन ध्यान रखेगा मेरा ? और मेरे मनपसंद खाने के व्यंजन कौन बनाएगा ?”

गंगासरन उनकी सादगी पर फ़िदा हो गए थे | वो उनके भोलेपन पर मर मिटे थे | वो कुछ न बोले और धीमे धीमे से मुसकाते हुए अनारो के मुखमंडल को निहारते रहे | अनारो भी उनकी आँखों में अपने अस्क को देख शर्मा कर चुप हो गईं और मूक बनी मन ही मन अपने विचारों की उधेड़ बुन में लग गईं और अपने सवालों के जवाब सोचने लग गईं | विचारों में विचरते रास्ता कब मंजिल तक ले आया इसका भान ही न हुआ |

गाडी हवेली के मुख्य द्वार पर आकर रुकी | सारे रस्ते मौन व्रत धारण करने वाले पतिदेव के मुंह से धीरे से निकले प्रथम स्वरों ने अनारो देवी के दिल में गहराई तक पैंठ कर ली,

“सुनिए, घर पहुँच गए | आप स्वयं उतर पाएंगी क्या या मैं मदद कर दूँ ? कहें तो हाथ थम कर ले चलूँ अन्दर तक | आपके लिए सब अनजान होगा अभी तो मैं सबसे मिलवाता चलूँगा | फिर आपका ख्याल भी तो रखना है | आपके साथ खेलना भी है और नए खेल के बारे में समझाना भी तो है | आपके जो भी सवाल हैं उनका जवाब भी देना है | आपने बताया नहीं चूड़ियाँ कौन से रंग की पसंद हैं आपको वो भी तो लेकर आनी हैं | और आपका मनपसंद खाना वो भी तो बनवाना है | ”

अनारो ये बातें सुनकर विस्मित हो उनकी तरफ निहारती रहीं और शर्म से आँखें झुक गईं | फिर उन्होंने गाडी का दरवाज़ा खोला और बाहर आकर अनारो को धीरे से पैर नीचे रखने को कहा और उनका हाथ थामे धीरे से उन्हें गाड़ी से नीचे उतार लिया |

बहार का नज़ारा देख कर अनारो की आँखें खुली की खुली रह गईं | उनकी नज़रों के सामने एक शानदार हवेली थी | हर तरफ गुलाब और गेंदे के फूलों से सजावट हो रखी थी | टंगे हुए रंग बिरंगे कंडील सुशोभित थे | उनमें से लाल, हरी, पीली, नीली, जामनी आदि रंगों की रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं | समस्त हवेली मानो दुल्हन की भांति सुसज्जित थी | मुख्य द्वार से गाडी तलक रजनीगंधा, चमेली, गुलाब आदि के फूलों का गलीचा बिछाया गया था | उसके दोनों तरफ दो हाथी अपनी सूंड उठा उन्हें प्रणाम कर रहे थे | कुछ एक सेवक हाथ में केवड़े की शीशी लिए सब पर केवड़ा छिड़क रहे थे | हवेली के चबूतरों पर नर्तकियां नाच रही थीं । दोनों पर हर दिशा से फूलों की बरसात हो रही थी  | वहां के कण कण से बाजे गाजे, ढोल-ताशे, शंखनाद, मंजीरे और ढोलक बजने की तालें सुनाई दे रही थी | सारा आकाश नव वर वधु के आगमन पर पूजा के मंत्रोचारण से गुंजायेमान हो रहा था | उनके स्वागत के लिए अंग्रेजी बैंड भी मंगवाया गया था | उस बैंड पर इंसानों के साथ घोड़े भी नाच रहे थे | सैकड़ों लोगों की भीड़ इस समारोह में सम्मिलित थी और आनंद ले रही थी | एक भव्य और राजसी ठाटबाट के चलते उनका स्वागत और आवभगत बड़े ही आदर, सम्मान और प्रेम पूर्वक हो रहा था  | क्रमशः

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गुरुवार, फ़रवरी 14, 2013

श्रीमती अनारो देवी – भाग १

श्रीमती अनारो देवी - मुख्य पात्र
श्री गंगा सरन - पति श्रीमती अनारो देवी
श्री साहू हर प्रसाद - पिताजी श्रीमती अनारो देवी
श्रीमती हिरा देवी - माताजी श्रीमती अनारो देवी
श्री जानकी प्रसाद - पिताजी श्री गंगा सरन
श्रीमती कलावती देवी - माताजी श्री गंगा सरन

श्रीमती गार्गी देवी - सुपुत्री श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री सुरेन्द्र प्रसाद - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री योगेन्द्र प्रसाद - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री महेन्द्र प्रसाद 'मानू' - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री वीरन्द्र प्रसाद - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री सत्येन्द्र प्रसाद - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्रीमती बीना देवी - सुपुत्री श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्रीमती माधरी देवी - सुपुत्री श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी
श्री विनो दप्रसाद - सुपुत्र श्री गंगा सरन + श्रीमती अनारो देवी

अब तक के सभी भाग - १०
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ब्रिटिश राज | गुलाम भारत | आज़ादी के लिए जददो जहद ज़ारी थी | इसी टहलुआ हिंदुस्तान के उत्तर प्रदेश प्रान्त के एक छोटे से शहर मुरादाबाद में बसे मोहल्ला दिनदारपुरा के रहने वाले थे साहू हर प्रसाद | ऊँचा लम्बा कद, आकर्षक व्यक्तित्व, रौबीली ज़ोरदार आवाज़ के मालिक जमींदार खानदान में जन्मे मिजाज़ से बहुत ही गर्म और गुस्सैल प्रकृति वाले व्यक्ति थे | मग़रुर किन्तु निडर स्वाभाव के स्वामी थे | हर एक कार्य में दक्ष और बुद्धिकौशल के प्रतीक थे | यद्यपि ज्यादा शिक्षित नहीं थे परन्तु दूरदर्शी गज़ब के थे | बहुत ही सफल उद्यमी भी थे | हर कारोबार की समझ रखने वाले, रसूकदार शक्सियत, बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे | उनके पुरखे उनके लिए अनेकों खेत, खलिहान, रुपया पैसा और साथ में बहुत सारी अकड़ भी छोड़ गए थे | परन्तु एक बात सराहनीय थी के अपनी बुद्धि, विवेक और कार्यकुशलता के चलते उन्होंने ब्याज बट्टा, अनाज की आढ़त, सोना, चांदी, विदेशी साड़ियाँ और कपड़ा, ज़मीन ज़ायदाद, खाने के मसाले, कोयला, मेवा, लकड़ी आदि के थोक व्यापार में बड़ा नाम कमाया | इस के चलते अंग्रेजी सरकार ने उन्हें ‘साहू’ के ख़िताब से नवासा | सरकारी काम काज और कोर्ट कचेहरी की भी गज़ब की समझ रखते थे और लोगों के झगड़ों के फैंसले भी करवाया करते थे | सम्मानार्थ सरकारी अदालतों में उन्हें न्यायाधीश के साथ फैसलों में बैठाया जाता था | गज़ब के न्यायकर्ता और परखी नज़र रखते थे वो | लोगों से काम कैसे निकलवाना है इसमें उन्हें महारत हासिल थी | सारे शहर में उनका बहुत ही रुतबा था तथा सभी उनको बहुत आदर और सम्मान दिया करते थे | साहू साब, साहू साब कहते लोगों का मुंह नहीं थकता था | कोई भी उलझन हो, अड़चन हो, आपसी झगडा हो, सब न्याय की आशा लिए उनके पास पधारते थे | और साहू साब भी एक दम सटीक न्याय करते थे | इसलिए सभी उनके कायल थे | उनके इस व्यक्तित्व के विपरीत उनका एक शौक बिलकुल जुदा था | उन्हें पाक कला में बेहद रूचि थी | वैसे तो कहने को दसियों नौकर नौकरानियां थे हवेली में पर जब खाना बनाने का दिल होता या कभी मेहमान नवाज़ी का वक़्त आता तो साहू साब खुद खड़े होकर खाना बनाते और आदेश देकर अपनी देख रेख में स्वादिष्ट व्यंजन बनवाते | मसालों के इस्तमाल से सब्जियों को स्वादिष्ट कैसे बनाया जाये इसका बहुत ही गूढ़ ज्ञान था उन्हें | उनकी दावत के पकवानों को खाकर लोग अपनी उँगलियाँ तक चबा जाया करते थे और उनकी वाह वाही करते नहीं थकते थे | शहर के अनेकों हलवाई उनसे सलाह मशवरा कर के अपने कारोबार को बढ़ा रहे थे और उनके गुणगान करते न चूकते थे |

यूँ तो साहू साब का ब्याह छोटी उम्र में हो गया था | उनकी पत्नी हीरा देवी भी एक संभ्रांत कुल से ताल्लुक रखती थी | उनकी शरीक-ए-हयात की शक्सियत भी उन्ही के माकूल थी | शर्म उनका गहना था और मीठे बोल उनकी फितरत | बला की सुन्दर | बेहद शांत स्वभाव की घरेलू विचारधारा वाली आकर्षित महिला थीं | परन्तु संतान सुख की प्राप्ति उन्हें अनेक वर्षों बाद हुई | ये प्रभु की इच्छा ही थी के इतने वर्षों के इंतज़ार, कामना, पूजा पाठ, दान दक्षिणा, कर्म काण्ड और मेहनत पश्चात उनकी धर्म पत्नी हीरा देवी ने एक चाँद की चांदनी सी पुत्री को जन्म दिया | पुत्री होने पर भी दोनों अत्यंत हर्षित थे | उन्होंने कभी भी पुत्र और पुत्री में भेद भाव नहीं किया था | उनके लिए दोनों का महत्त्व समान था और फिर यह तो इश्वर का प्रसाद थी | इतने जतन के पश्चात संसार में आई थी |

पुत्री थी गज़ब की खूबसूरत | बालिका के मुखमंडल से सूर्य सा तेज उत्पन्न हो रहा था | किशमिश जैसी छोटी छोटी आँखें नन्हे से गोल मटोल चेहरे पर सजी थीं | चिल्गोज़े सी छोटी सी नाक और अंजीर जैसे लालम-लाल गुलाबी गाल के बीच मुनक्का से मीठे होठ मुस्कराहट की मिठास बिखेर रहे थे | उन होटों के ऊपर महीन सा इलाईची जैसा तिल था जो किसी के भी दिल जीतने में पूर्णतः सक्षम था | ऐसा प्रतीत होता था मानो इश्वर ने शुभ की मेवा थाली सजाकर साहू साब के जीवन में भेंट कर दी हो | बिटिया के ज़िन्दगी में आते ही उनके कारोबार में दिन दूनी और रात चौगनी तरक्की होने लग गई | आते ही वो सबकी लाडली बन गईं | उनकी अनार जैसी सुर्ख रंगत ने सबका मन मोह लिया | साहू साब ने इसी सुन्दरता को देखते उनका नाम अनारो रखा था |

समय का पहिया चलता रहा और ज़िन्दगी भी साथ साथ बढ़ती रही | अब अनारो भी बड़ी हो रही थीं | खेल कूद में उनकी रूचि ज्यादा नहीं थी | न ही सहेलियों के साथ इधर उधर जाया करती | अपनी उम्र के बच्चों से अधिक दिमाग था उनमें और उसे वो सकारात्मक तरीके से उपयोग किया करती थीं | उन्हें अपने पिताजी के साथ समय व्यतीत करना बहुत पसंद था | पढाई लिखाई के आलावा भी उन्हें अपने पिता के स्नेह की छाँव में बहुत कुछ सीखने को मिलता | दुनियादारी, बोल चाल, आचार विचार प्रकट करना, काम क़ाज और कारोबार को समझना उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही शुरू कर दिया था | साहू सब को भी अपनी लाडो से बहुत लगाव था | वो जितना उन्हें सिखाते और बतलाते वो तुरंत ही सीख जातीं | बचपन से ही वो बहुत ही कार्यकुशल बालिका थीं | उनका जीवन को समझने और जीने का नज़रिया बहुत ही साफ़ था | हर समय कुछ न कुछ सीखते रहना और पढ़ते रहना उसकी आदत थी बाक़ी जो थोड़ी बहुत कमीवेशी रह जाती वो पिताजी और माताजी की सोहबत पूरी कर देती | ऐसे ही खेलते कूदते और सीखते कुछ और साल बीत गए |

ग्यारह वर्ष की आयु के आते आते नियति ने उनपर एक बहुत दुःख की गाज गिरा दी | अनारो की माताजी स्वर्ग सिधार गईं | उस उम्र में जब माता के साथ और शिक्षा की सबसे ज्यादा और सक्थ ज़रुरत होती है अनारो एक दम अकेली पड़ गईं | ऐसे समय में उनको साहू साब ने संभाला | वो उनके लिए पिता और माता दोनों का फ़र्ज़ पूरा किया करते | कारोबार के साथ साथ अब वो घर पर और बेटी पर भी पूरा ध्यान दिया करते और अपनी बेटी को अपना सम्पूर्ण समय, शिक्षा, प्यार, लगाव और सम्मान दिया करते | उन्हें पाक कला के गुण भी सिखाते साथ साथ कारोबार की बारीकियां भी समझाते और जीवन को जीने का तरीका सिखलाते | साहू साब के मातहत, अनारो को जीवन के सभी विशेष ज्ञान सीखने को मिल रहे थे और उनके जीवन और बुद्धी दोनों का विकास परस्पर सम्पूर्ण रूप से हो रहा था |

अब अनारो चौदह वर्ष की हो गई थी | देखने में वैसे तो छोटी कद काठी की थीं परन्तु छहरहराह बदन, फुर्तीली, पतली दुबली, गोरी चिट्टी, चमेली के तेल लगाये बंधे हुए घने काले सियाह बालों की कमर को छूती लम्बी नागिन सी चोटी, हिरनी जैसी चमकती आँखें, तीखे नक्श, सुर्ख गुलाबी होठ, अनार के दानो सी उनकी हंसी, माथे पर सूरज सा तेज लिए कुमकुम की बिंदिया, हाथों में रंग बिरंगी कांच की चूड़ियों के साथ सोने का जडाऊ काम के कंगन, विदेशी सिल्क की महीन काम वाले बॉर्डर की साडी पहने सबसे अलग ही नज़र आतीं | उनके मुखमंडल के तेज, पहनावे, आचार, विचार, व्यव्हार और बातचीत से साफ़ झलकता के वो एक खानदानी और उच्चवर्गीय राजसी परिवार की महिला हैं | पिता की परवरिश का असर उनके परिवेश से साफ़ चमकता था | उनके चेहरे पर काला तिल उनकी नज़र का टीका बन गया था जो उन्हें नज़र-ए-बद से बचाता था | साहू साहब को अब उनके ब्याह की चिंता सताने लग गई थी | उन्होंने ने एक अच्छा सा खानदान देखना शुरू कर दिया था जहाँ वो अनारो को ब्याह सकें | काफी रिश्तों पर गौर फरमाने के पश्च्तात आख़िरकार उन्हें सफलता प्राप्त हुई और मेरठ शहर के एक ज़हीन और मशहूर-ओ-मारूफ खानदान में उन्होंने अनारो का रिश्ता पक्का कर दिया |

खानदान उनके रुतबे की टक्कर का था | यदि ज्यादा नहीं था तो कम भी नहीं था | बढ़िया कारोबार था | लड़के का नाम गंगा सरन था | बेहद सुन्दर, छह फुट लम्बाई, चौड़ा हाड़, मनमोहक व्यक्तित्व के स्वामी, वाक् कुशल, व्यव्हार कुशल, निश्छल स्वाभाव तथा मृदुभाषी थे | उनका अपना विदेशी कपड़े का व्यापार और कारोबार था | सम्पूर्ण भारतवर्ष के सभी राज्यों में विदेश से कपड़ा मंगवाकर उपलब्ध कराना तथा उसकी थोक बिक्री एवं फुटकर बिक्री भी किया करते थे | बहुत ही संपन्न परिवार था | साहू साब को पूरा यकीन था की उनकी पुत्री उस परिवार में बेहद खुश रहेगी | लड़का भी उन्हें बेहद पसंद था | आखिर विवाह दिवस आया और अनारो का कन्यादान करके साहू साब अपने कर्त्तव्य से मुक्त्त हुए और अनारो पराई हो गई | क्रमशः

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

दिल की दास्ताँ - अंतिम भाग

सुधांशु ने मुड़ कर देखा, और मुस्करा दिया | उसकी आँखें नम थी और होटों पर मुस्कान थी | दुःख और सुख का ऐसा समन्वय उसके जीवन में एक अरसे बाद आया था | जिस दिन का उसे बेसब्री से इंतज़ार था वो बरसों बाद आज आ ही गया था | लालाजी उसके सामने खड़े थे | वो झट से लालाजी के गले लग गया | अश्रुपूरित नयनो से और कांपती आवाज़ में उसने पूछ ही लिया,

"इतनी देर, इतनी देर क्यों की, दददू?"

"लालाजी, चुप रहे और उसे गले से लगा लिया और धीरे धीरे उसकी कमर सहलाते रहे और प्यार से सर पर हाथ फेरते रहे"

दोनों फिर साथ में घुमने निकल पड़े और एक शांत स्थान पर जाकर बैठ गए | दोनों खामोश थे | काफी देर तक दोनों सुकून के साथ उस चुप्पी को सुनते रहे | फिर अचानक लालाजी ने धीरे से कहा,

"देर तो हो गई बेटा, इस बार कुछ ज्यादा ही देर हो गई | पर देर आए दुरुस्त आए | अब से मैं तेरे साथ हूँ | हर सुख दुःख में |"

सुधांशु ने भी हामी में चुप चाप सर हिला दिया और दोनों घंटो साथ बैठे रहे | उस दिन सुधांशु और लालाजी के बीच एक नए रिश्ते ने जन्म लिया और वो रिश्ता था दोस्ती का, प्यार का , आदर का, सम्मान का | उस एक दिन में सुधांशु को वो सब कुछ मिल गया जो उसने बरसों से नहीं पाया था | दादा और पोते ने मिलकर उस दिन खूब मज़े किये | लालाजी ने भी जम कर मीठा खाया | दोनों की पसंदीदा मिठाई जलेबियाँ ही थीं और आखिर में लालाजी ने अपने हाथ से आखरी जलेबी उठाई और आशीर्वाद देते हुए अपने पोते को खिलाई और बोले,

"जिस तरह इस जलेबी की मिठास तुम्हारे मुंह को मीठा कर रही है उसी तरह से मेरा आशीर्वाद है के आगे तुम्हारी ज़िन्दगी भी ऐसे ही मीठी बनी रहे | चलो अब घर चलते हैं |"

लाला जी के हाथ से छड़ी लेते हुए सुधांशु ने उनका हाथ थाम लिया और अपने कंधे पर रख लिया | और फिर हंसी मजाक करते, हँसते खिलखिलाते दोनों घर की ओर चल पड़े |"

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शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग ३

आखिरकार  दिन, महीने और फिर साल गुज़रे और निज़ाम ऐसे ही चलता रहा | पंद्रह साल से ज्यादा बीत गए थे | सुधांशु २८ साल का हो गया था | आपसी मन मुटाव के चलते रिश्तों के बीच के एहसास भी सूली चढ़ चुके थे | लालाजी और समस्त परिवार एक तरफ और सुधांशु दूसरी तरफ | प्यार तो दिलों में बहुत था पर वक़्त ने उस प्यार को एक दुसरे तक कभी पहुँचने नहीं दिया | दुसरे शब्दों में कहूँ तो वक़्त ही 'मैं' बन गया था | और उस 'मैं' के रहते सब कुछ खत्म होता गया |

कहते हैं इंसान अच्छा या बुरा नहीं होता | जो होता है वक़्त होता है | सच कहूँ तो मुझे आज भी इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं है | इंसान तो इंसान है और उसका स्वाभाव उसके वश में है इसमें वक़्त का अच्छा और बुरा होने से क्या लेना देना | व्यव्हार इंसान के काबू में होना चाहियें चाहे फिर वक़्त कैसा भी हो | जिस व्यक्ति को अपने व्यव्हार और वाक्शक्ति पर नियंत्रण नहीं वो इन्सान कमज़ोर होता है | ऐसा मैं मानता हूँ ज़रूरी नहीं के हर कोई ऐसा ही सोचता हो |

सुधांशु की भी यही सोच था | उसका स्वभाव उसके वश में था और उसकी सभी इन्द्रियां भी | इसके चलते उसने एक चुप्पी साध ली थी | न वो बुरा कहना चाहता था न सुनना | न कोई शिकवा न किसी से कोई शिकायत | बस एक मौन था और दिल में दर्द का उमड़ता तूफ़ान जो उसे अन्दर ही अन्दर बहाए ले जा रहा था हर एक परिस्थिति और अपनों से दूर | करना बहुत कुछ चाहता था सबके लिए पर कद्र किसको है यह सोचता था | कर्मठता परिपूर्ण थी उसमें | हर एक कार्य में दक्ष था | अपने मतलब का हर काम करना वो भली भांति जानता था | आखिरकार लाला जी का खून था | चारों चूल चौकस और चौकन्ना | दिमाग तो उसका फेर्रारी से भी तेज़ दौड़ता था | अपने काम से और अपनी मेहनत से आज वो नौकरी में भी शिखर पर पहुँच चुका था | उसने बहुत ही कम उम्र में बहुत कुछ हासिल कर लिया था परन्तु दिल और हाथ एकदम ख़ाली थे | पैसा तो कमाया पर उसका मोह कभी नहीं किया | सारी कमाई दूसरों पर खर्च कर देता | एक पैसा न जोड़ता | घर में सभी के लिए कुछ न कुछ लेकर आता सिर्फ लालाजी और उनकी धर्म पत्नी के लिए नहीं | दिल तो बहुत करता पर कुछ ऐसा था जो उसे रोक देता | लालाजी ने भी तो आजतक ऐसा ही किया था | दिल तो उनका भी बहुत था करने को पर किया आज तक कुछ नहीं | दिलाया कुछ नहीं | 

इसी के चलते सुधांशु का रिश्ता पक्का हो गया | लड़की उसने स्वयं पसंद की थी | उसने लव मैरिज करने का फैसला किया था | परिवार भी जैसे तैसे मान गया था | परन्तु लालाजी सहमत न थे | फिर भी अनमने बुझे दिल से वो शादी में शामिल हुए | शादी हुई और सुधांशु के जीवन का एक नया दौर आरम्भ हुआ | शुरुवाती दिनों में सब कुछ अच्छा लग रहा था | परन्तु जीवन के कुछ और इम्तिहानो से और बेहद बुरे दौर से गुज़ारना अभी बाकि था | शादी के कुछ समय बाद ही खटपट शुरू हो गई | न विचार मिलते थे दोनों के न ही व्यव्हार और सोच | उसको धर्मपत्नी से और बीवी को उससे शिकायतें रहने लगी | झगडा बढ़ते बढ़ते परिवारों के बीच पहुँच गया | दिलों में खटास और मन मुटाव के चलते कलह और आरोप प्रत्यारोप अपने चरम सीमा पार कर गए | बुजुर्गों का अपमान और उपेक्षा उसके लिए आम बात थी । न आदर न सम्मान । रिश्ते उसके लिए सिर्फ उपयोग की वस्तु रह गए थे । वो नाम के लिए पुत्र-वधु तो बनी थी पर कुल-वधु कभी नहीं बन पाई । अपने जीवन में उसे किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं था । बड़ों से लिहाज़ और छोटों से तहज़ीब और अदब से किस तरह पेश आना चाहियें था ये उसकी परवरिश में शुमार नहीं था । अपनी बात किसी से न कहने की कवायत के चलते फासला बढ़ता जा रहा था | न बोले तुम न मैंने कुछ कहा ने एक दीवार खड़ी कर दी रिश्तों में | वो हर बात पीता और अन्दर ही अन्दर घुट घुट कर जीता रहता | काम पर जाता तो वहां से वापस आने का दिल न करता | घर में कलेश का माहौल रहने लगा था | उसका दम घुटने लगा था | रोज़ रोज़ वही चिक चिक | वही महाभारत रोज़ रोज़ आखिर कौन कब तक बर्दाश्त करेगा | इस सब के चलते उसके एक संतान ने जन्म लिया | संतान के आने से जीवन में फूलों की बरसात हो गई हो | मेघा की झड़ी लग गई | खुशिओं की बरखा बरस गई | जितना लगाव और मोह उसे अपनी संतान से था उतना किसी से भी नहीं था | अपनी माँ के बाद अगर वो किसी को सच में चाहता था और जान देता था वो उसकी संतान ही थी | बीवी के और उसके बीच के रिश्ते परस्पर बिगड़ रहे थे | किसी तरह वो अपनी शादी को बचने का प्रयास करता रहा | कभी प्यार की खातिर कभी बेटी की खातिर |

परन्तु कहते हैं न औरत चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे या फिर नरक | ये सब उसके हाथ में होता है | एक गलत इंसान और एक बिना सोचे लिए गया फैसला आपकी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए तबाह कर सकता है | सुधांशु के साथ भी यही हुआ | एक दिन उसके सारे भ्रम टूट गए | उसके भरोसे का खून हो गया | जिस रिश्ते को उसने प्यार का रिश्ता समझा था उस रिश्ते में दरअसल प्यार तो कभी था ही नहीं | जिसे वो जीवन संगिनी समझे बैठा था वो तो किसी और की ही थी | अपने जीवन के इस अध्याय के सच सामने पाकर वो बिखर गया | अन्दर से पूर्णतः टूट गया | पर कहता किस से सुनता कौन उसकी | कहना और शिकायत करना तो उसने सीखा ही नहीं था | इसलिए खामोश रहा | सहता रहा | ज़िन्दगी सबसे बड़ा आघात उसे तब लगा जिस दिन उसे मालूम हुआ के किसी और के लिए उसकी बीवी ने उसे छोड़ दिया और उसकी संतान को भी लेकर घर से चली गई | इसी कशमकश और उलझनों के चलते उनका अलगाव होने की नौबत आ गई | भरसक प्रयास किया रिश्ते को बचने का परन्तु नतीजा कुछ न निकला | बड़े बूढों का साया सर पर रहते हुए भी ऐसे दिन देखने को नसीब होंगे उसने कभी सोचा न था | आख़िरकार उसका घरोंदा टूट गया | संतान से भी विच्छेद हो गया | अब वो एक दम अकेला था | इसका सबसे ज्यादा दुःख लालाजी को ही था | उनके रहते उनके खून की ऐसी हालत वो बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे | पर अपने दिल की बात कहना कहाँ आता था उन्हें | अब सुधांशु एक दम खामोश हो चुका था | खून के आंसू पी पी कर उसके दिल के ज़ख्म भी सूख चुके थे | पर वो बहुत ही हौसलें वाला इंसान था | जीवन का ये वार भी सह गया | प्रभु की एक और लीला समझ कर उसने उनका धन्यवाद् दिया और कहा के शायद इसमें भी कोई अच्छाई ही होगी जो आपने मेरे साथ ऐसा किया | जीवन के तमाशे के किरदार तो आपने लिख कर भेजे हैं मैं उन्हें बदलने वाला कौन हूँ | भगवान् पर उसका भरोसा अटल था  | ऐसे झटकों से अक्सर लोग तबाह हो बिखर जाया करते हैं | पर वो संभल गया | अच्छे बुरे और अपने पराये की पहचान उसे भली भांति हो गई थी | पुराने लोग कह गए हैं के दर्द जब दिल के पार हो जाये और हद से गुज़र जाये तो होटों पर मुस्कान बन कर छलकता है | वही उसके साथ हुआ | अपने भीतर के दर्द से बचपन से लड़ते लड़ते वो इतना मज़बूत हो गया था के आज उसके सामने जो परिस्थिति थी वो उसके लिए कहीं न कहीं तयार था | दिल से कहूँ तो उसने अपने आपको इतनी बेहतरीन तरह से संभाला के आज उसके समस्त परिवार को भी उस पर नाज़ था |

उसके स्वाभाव में अचानक एक भव्य परिवर्तन हुआ | जो इंसान “एंग्री यंग मैन” के ख़िताब की पराकाष्ठा को भी पार कर चुका था, ख़ामोशी, अना, जिद, चिडचिड़ाहट, जवाबदेहि, मुन्ह्ज़ोरी, कडवाहट, बदजुबानी,  जिसके पर्यायवाची हुआ करते थे | जो प्राणी या तो बोलता ही नही था या बोलता था तो काटने को दौड़ता था आज वो एक दम शांत था | उसके स्वभाव में एक ठहराव था | अपने प्यार को दर्शाने का ये तरीका उसने कब और कैसे छोड़ दिया इससे सब अनजान थे | आज एक पूर्णतः बदला हुआ सुधांशु सबके समक्ष था | अब उसका व्यव्हार और आचरण एक दम उसके स्वाभाव के विपरीत था | शायद एक गलत फैसले और गलत रिश्ते के तजुर्बे ने उसे ये भी सिखा दिया था के अपने अपने ही होते हैं और पराये कभी अपने नहीं होते | किसी पर भरोसा बहुत सोच समझ कर करना चाहियें |

वो इतवार का दिन था | इन्ही सभी ख़यालों में डूबा सुधांशु चुप चाप अपने कमरे में बैठा था | अचानक किसी ने अपना हाथ उसके काँधे पर रखा और पुछा,

"बेटा, किस सोच में बैठा है ? सब ठीक है न | रात सोया नहीं क्या ? कुछ तकलीफ तो नहीं है ? मैं तेरे साथ हूँ और तेरे पास भी | डरता और घबराता क्यों है | चल उठ खड़ा हो | मेरे गले तो लग जा ज़रा | अरसा हो गया तुझे सीने से लगाये | दिल तरस गया तेरे दिल की धड़कन को महसूस करने के लिए | तेरे मन की आवाज़ सुनने के लिए कान तरस गए | ऐसी भी कैसी नाराजगी? चल आ आज बहार चलते हैं | साथ में घूमेंगे और छोले कुलचे खायेंगे | थोड़ी हवाखोरी भी हो जाएगी | क्या कहता है ? चलें ? तयार है न मेरे शेर ? बता |"  क्रमशः

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बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग २

लालाजी भी आदत से बाज़ आने वालों में से नहीं थे | उन्होंने भी सुधांशु के गाल पर तमाचा रसीद करने में ज़रा भी वक़्त जाया नहीं किया | उसके कोमल मन पर बारम्बार ऐसे आघात उसके स्वाभाव को और ज्यादा विद्रोही बनाते जा रहे थे | उसको एहसास होने लगा था के उसके साथ गलत हो रहा है पर बताता कैसे और किसको | न कभी उसकी किसी ने सुनी, पढाई में अव्वल आने पर न कभी शाबाशी मिली न कोई इनाम, न कभी खुद ही घुमने गए न उसे घुमाने ले गए, कूप मंडूप से हर समय घर में पड़े रहो और बैठे रहो | वो आसमान का पंछी बनना चाहता था और यहाँ सब उसके पर कतरने में लगे थे | उसकी परवाज़ को पंख देने की जगह उसे पिंजड़े में क़ैद कर रहे थे | बस यही पीड़ा और कसक उसके जीवन में हमेशा हर पर चलती रहती थी | बड़े बुज़ुर्ग बिना बोले ही अपने खून की भाषा समझ लेते हैं | उसने किताबों और ज़िन्दगी में, फिल्मों में यही देखा था | पर यहाँ तो निज़ाम ही उल्टा था | इतने सब के बाद भी मन से वो आज भी बहुत कोमल और सोम्य था | उसके मन में कोई पाप कोई बैर भाव नहीं था | अगर कुछ था तो वो थे उसके सवाल और उसका दर्द जिन्हें समझने और बांटने वाला कोई नहीं था | अकेले में वो बहुत रोता, इन सभी बातों पर बहुत विचार करता, अपने आप से सवाल पूछता और खुद ही जवाब ढूँढने की कोशिश करता | पर एक कृष्ण विवर के सिवा उसके हाथ कुछ न लगता | सैकड़ों ख़यालों और सवालों से वो अकेला ही लड़ता रहता और जब थक जाता तो हताश होकर बैठ जाता | वो सिर्फ एक अकेला तनहा प्राणी था जो ये सब बचपन से बर्दाश्त किये जा रहा था | परन्तु किसी के सामने अपने दर्द को ज़ाहिर नहीं होने देता था | एक कठोर बाहरी अनावरण बनाता जा रहा था अपने चारों ओर सबको दिखने के लिए | वो कहते हैं न के यदि इंसान स्वाभाव से कोमल ह्रदय हो तो वो अपने को ऊपर से कठोर दिखाना शुरू कर देता है | बात बात पर झुंझला जाना, तुनक कर जवाब देना, अनाप शनाप जवाबदेही करना, हर समय चिडचिड़ाहट से भरा रहना, छोटी छोटी बातों पर गुस्से से आग बबूला हो जाना, खाने पर गुस्सा निकलना, कमरे में बंद रहना  और अपनी कमजोरियों को सवालों और बहानो में छिपाना उसकी सामान्य ज़िन्दगी में शामिल हो चुका था | मैं बहुत बुरा हूँ और सब मुझसे दूर रहो | मेरे पास आए तो मैं और बुरा बन कर दिखा दूंगा | उसे लगने लगा था के उसके नर्म स्वाभाव और विनर्म वाणी को सुनकर सब उसे दब्बू समझेंगे | उसका नाजायज़ फायदा उठाएंगे | क्योंकि आजकल का ज़माना ऐसा ही है | यदि आप चुप चाप सब कुछ सहते रहते हैं तो लोग आपको कमज़ोर समझने लगते हैं | और कहीं स्वभाववश आपने अपनी गलती मान ली या अपनी कमजोरी को दिखा दिया तो सभी आपके ऊपर राशन पानी लेकर चढ़ जाते हैं | एक गुस्सैल और कठोर वाणी वाले इन्सान से सभी डरते हैं और उसके समक्ष चूं भी नहीं करते या अपना रास्ता बदलकर कन्नी काट लेते हैं | उसने भी वही रास्ता अख्तियार किया | अपनी माँ से विरासत में मिले निर्मल और कोमल दिल को उसने कठोर और सक्थ कवच से ढांक दिया |

इसी कारणवश उसका कोई दोस्त भी न था | जो रवैया और बोलचाल उसकी घर में थी बहार भी वो वही दिखने लग गया था | उसे डर था के कहीं बहार भी उसके साथ वैसा ही बर्ताव न हो जैसा घर में होता था | जो थोड़े बहुत यार दोस्त बने भी थे उनको कभी लालाजी ने घर आने नहीं दिया तो धीरे धीरे उनका साथ भी छूट गया | दूसरा कारण यह भी था के वो स्वाभाव से मक्कार, चंट चालाक नहीं था और न ही ये सब बातें उसे पसंद आती | पर आजकल की दुनिया में यदि जीना है तो इन गुणों से आपको लैस होना स्वाभिक है क्योंकि किसी भी गंभीर, भावुक, जज्बाती, दयामय, कोमल ह्रदय और भावप्रधान जीवन जीने वाले प्राणी को आजकल इमोशनल फूल की उपाधि से तुरंत सम्मानित कर दिया जाता है | और लोग उनका फायदा अपने मतलब के लिए उठाते हैं | 

जैसे तैसे कर करा के सुधांशु ने स्कूल की पढाई तो पूरी कर ली परन्तु कॉलेज में जाने के स्थान पर उसने एक प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला ले लिया | वह जल्दी से जल्दी कोर्स कर के खुद कमाना चाहता था | अब तक उसके और लालाजी के बीच काफी फासलें आ चुके थे | वो ज़्यादातर अपने में खुश रहता बनिस्बत इसके के वो घर पर किसी से भी खुल कर बात करे | उसकी दुनिया अब उसके कमरे तक सिमट कर रह गई थी | पढने का शौक उसे बचपन से था, तो जो कुछ हाथ आता वो पढ़ डालता | उसकी छोटी सी दुनिया उसके सपनो के पास ज्यादा और अपनों के पास कम घूमती थी | उसके पास अपना एक छोटा सा निजी पुस्तकालय बन चुका था जिसमें नोवेल्स, साहित्य, कहानियां, कॉमिक्स, सामान्य ज्ञान और बहुत सी किताबों का कलेक्शन था | किताबों के साथ उसकी दोस्ती सबसे पहले उसकी माँ ने करवाई थी और तभी से वो उसकी सबसे करीब साथी थी | इस दौरान चंद दुसरे मित्रों से भी उसकी दोस्ती हो गई थी | वो उसके प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट की छात्र और छात्रा थे | उसके ग्रुप में एक लड़की थी जो उसे बेहद पसंद थी | उसने लालाजी से अपनी शादी की बात करने का फैसला किया परन्तु लालाजी के सामने आते उसकी बोलती बंद हो जाया करती थी | अपनी माँ से अपने हाल-ए-दिल को बयां तो कर लेता था पर अब उसे भी पता था के माँ उसकी किसी प्रकार की मदद नहीं कर सकती हैं सिर्फ इश्वर से प्रार्थना और सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दे सकती हैं | पर फिर भी माँ से बात कर के उसे बेहद सुकून मिलता था |

कोर्स ख़तम होते होते उसकी नौकरी लग चुकी थी | अपने खानदान में वो पहला लड़का था जो इतनी कम उम्र में नौकरी में गया था | उसके साथ के बाकि सारे बच्चे मौज मस्ती में लगे हुए थे या अपने बुजुर्गों के साथ उनका व्यवसाय सँभाल रहे थे | लालाजी ने कभी भी इस बारे में सोचा नहीं था | उन्हें बस परवाह थी तो अपनी और अपनी झूठी शान और आडम्बर की | अन्दर भले ही वो कितना भी चाहते हों परन्तु जब दिखने का वक़्त आता तो वो हमेशा फेल हो जाते | अपने पोते को कितना चाहते हैं कभी नहीं बता पाए और सब कुछ सही होते होते गलत हो जाया करता था | बात बनते बनते इतनी बिगड़ जाती की पूरे घर में तनाव हो जाता | इसमें काफी बड़ा हाथ उसकी दादी उर उनकी बेटियों का भी था | हर समय लालाजी को भड़काना और चुगली करके कान भरना यही उनका काम था |

नौकरी लगते ही सुधांशु ने अपने आपको उसमें झोंक दिया | मशीन की भाँती वो दिन में १८-२० घंटे काम में लगा रहता | कई कई दिन तो ऐसे होते के वो ऑफिस से घर ही न आता | जो थोडा बहुत समय वो घर पर बिताता था अब वो भी खत्म होता जा रहा था | खासकर लालाजी के साथ उसकी बातचीत पूर्णतः समाप्त ही हो गई थी | महीनो बीत जाया करते एक दुसरे की शक्ल देखे हुए | लगाव तो था परन्तु वो रोष और गुस्सा भी था जो इतने सालों से दिल में भरता जा रहा था | एक ही खून होने की सबसे बड़ी विडंबना यही थी के “मैं” दोनों में एक समान था | दोनों में से कोई भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहता था | लालाजी सोचते के सुधांशु आकर उसने पहले बात करेगा और सुधांशु भी जवान खून था और उसपर लालाजी का पोता | उसने भी सोच रखा था के जब तक लालाजी उससे सीने से लगा कर प्यार से बात नहीं करते और उसका हाल चाल नहीं पता करते तब तक वो भी बात नहीं करेगा | हर दफा मैं ही क्यों झुकूं | मेरी गलती क्या है | बस इसी अना के चलते जो छोटी सी डोर बची थी वो भी टूट गई | क्रमशः

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मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

दिल की दास्ताँ – भाग १

दास्ताँ हमेशा दिल और प्यार से बनती है दिमाग से नहीं | जहाँ रिश्ते दिमाग से बुने जाते हैं वहां कभी कोई भी दास्ताँ पनप ही नहीं सकती | जहाँ दिल है वहां प्यार है और जहाँ प्यार है वहां कोई न कोई दास्ताँ ज़रूर होती है | प्यार को किसी भी पैमाने पर तौला नहीं जा सकता न की उसे साबित किया जा सकता है | प्यार है तो उसका दिखावा कभी नहीं हो सकता । प्यार तो एक एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और उस के चलते हर एक दास्ताँ को जन्म दिया जा सकता है | दिल के भीतर जितनी गहराई में प्यार होगा उतना ही मज़बूत रिश्ता भी होगा | ये कहानी भी कुछ ऐसे ही रिश्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिसमें प्यार की गहराई है, विद्रोह का दर्द है, सहन करने की पीड़ा है, अलगाव की वेदना है, मैं की भावना है, तकरार है, खून की खून के साथ बगावत है, अकेलेपन की व्यथा है, ख़ामोशी की कसक है, दिल की दुखन है और भी ऐसी बहुत सी भावनाएं हैं जिन्हें लेकर ये कहानी बुनी गई है | पर सबसे ऊपर है प्यार, विश्वास और एहतराम का जज़्बा जो इस कहानी का मूल स्तंभ है | जिसके चलते ये दास्ताँ लिखी गई है | उम्मीद करता हूँ आपको मेरी कोशिश अवश्य पसंद आएगी ।

पात्र:
लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल – दादा
सुधांशु अग्रवाल – पोता

 लाला पुरुषोत्तम अग्रवाल नामचीन व्यापारी थे | थोक के बाज़ार में उनका बड़ा रुतबा था | चावल की आढ़त का बहुत अच्छा कारोबार था उनका | एक छोटा सा परिवार था जिसमें उनकी धर्मपत्नी, दो बेटियां, बेटा, बहु और पोता पोती थे | आज की कहानी में दो मुख्य किरदार शिरकत करने वाले हैं और वो है लालाजी खुद और उनका पोता सुधांशु | कहानी यहीं से आरम्भ होती है जिस दिन सुधांशु का जन्म हुआ था | बड़ी की मन्नतों, पूजा पाठ, हवन, तंत्र मंत्र और मुरादों के बाद लालाजी के दिल की हसरत पूरी हुई थी | बेटे की शादी के दस साल बाद उन्हें पोते का मुंह देखना नसीब हुआ था | जन्म के साथ ही उसका लालन पालन राजकुमारों के जैसे शुरू हो गया |

लालाजी की जान बस्ती थी उसमें | अगर पोता धीरे से छींक भी दे तो डाक्टरों की कतार लगा देते थे | काम पर निकलने से पहले पोते का मुंह देखते और शाम को लौटकर सबसे पहले उसको गोद में लेकर खिलाते | रात को सुलाते भी अपने पास थे | इतना लगाव था पोते के साथ के उसके बिना जीना असंभव था | रिश्ते नातेदार अक्सर लालाजी का मजाक बनाया करते और कहते, “लालाजी पोता है पोता, तोता नहीं जो पिंजरे में बंद कर के साथ ले चलोगे |” लालाजी भी ऐसी बातों को हंसी में उड़ा दिया करते और कहते, “जब तुम्हारे होंगे तब पूछुंगा |” बस लगता है तभी से लोगों की नज़र लगनी शुरू हो गई इस रिश्ते को |

समय गुज़रा सुधांशु बड़ा हुआ | लालाजी ने अपने रसूक के चलते बेहतरीन और एक बहुत ही उच्च कोटि के माने हुए स्कूल में पोते का दाखिला कराया | सुधांशु भी होशियार था | अव्वल नम्बर लाता और घर में सब को खुश कर देता | इस सब से लालाजी फूले न समाते परन्तु लालाजी की धर्मपत्नी का मिजाज़ कुछ अजीब था | एकलौता पोता होते हुए भी उनका झुकाव अपने नाती-नातिन की ओर ज्यादा था | धनि परिवार से होने की वजह से उनमें ज़बरदस्त मैं और गुरूर था | इसके चलते वो अपने समक्ष किसी को कुछ नहीं समझती थी | हालातों एवं स्तिथि परिस्थिति को अपने इरादों के अनुरूप कैसे कुशलता पूर्वक प्रयोग करना चाहियें और चालाकी से काम निकलना उन्हें भली भांति ज्ञात था | इसीलिए उन्हें सुधांशु से कुछ खास लगाव नहीं था | और वो उसे अपनाती भी तो कैसे क्योंकि वो उसकी माँ को ही दिल से नहीं लगा पाई थी | इस बात में लालाजी की बेटियां भी अपनी मांजी पर ही गईं थी | परन्तु लालाजी इस सब से दूर अपने उत्तराधिकारी के साथ मस्त थे |

सुधांशु के पिता अलग व्यवसाय में थे | मसरूफ़ियत के चलते वो घर परिवार को ज्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे | हालाँकि संतान वो उन्ही की थी पर उन्हें अभी तक अपनी इस ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं था | जिस तरह के गैर जिम्मेदाराना परवरिश वाले माहौल में वो बड़े हुए थे उनका रवैया भी ज़िन्दगी के प्रति वैसा ही था | बालक होने के पश्चात भी उनमें रत्ती भर बदलाव नहीं आया था |

सुधांशु की माताजी एक बहुत ही सभ्य परिवार से थी | उनके पिता भी बहुत रासुक वाले और नामचीन व्यापारियों में से थे | खानदानी लोग थे | थोक मंडी में उनका बहुत साख़ थी | लालाजी ने ये रिश्ता मुंह से मांग कर लिया था | परन्तु घर के माहौल और लोगों के रवैये की वजह से वो कुछ खास खुश नहीं रहती थी | अब उनका सारा जीवन अपने सुपुत्र सुधांशु और उसकी छोटी बेटी के इर्द गिर्द ही घूमता रहता था | वो उन दोनों के लिए ही जीती थी | चुप रहती और सब कुछ सहती । उफ़ तक न करतीं थी ।

सुधांशु के जीवन का हर फैसला लालाजी लिया करते थे | क्या खाना है, क्या पीना है, कहाँ जाना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है, क्या पहनना है, स्कूल का होमवर्क, पिकनिक पर जाना, किसको मित्र बनाना है किसको नहीं इत्यादि सब लालाजी देखा करते थे | उसे भी अपने दादा से बेहद लगाव था | लालाजी कड़क मिजाज़ तो थे पर प्यार भी करते थे | यदा कदा सुधांशु की धुलाई भी कर दिया करते थे | उसे मर मर कर मोती के जैसे लिखना उन्होंने ही सिखाया था । वरना आज उसकी लिखाई भी कीड़े मकोडो जैसी होती । अक्षरों को मोती सा टांकना उनके डंडे की ही दें था । लालाजी में प्यार तो बहुत था पर उससे जताने का तरीका सही नहीं था | बात बात पर कठोर हो जाना और कड़ा व्यव्हार करना धीरे धीरे उनकी आदत में शुमार होता जा रहा था | दूसरा गाली गलोंच से बोलचाल करना उनकी सबसे बड़ी कमी थी ।

ज्यों ज्यों सुधांशु बड़ा हो रहा था वैसे वैसे कठोरता का मापदंड बढ़ता जा रहा था | अब लालाजी का व्यव्हार बात बात पर कड़ा हो जाया करता था | छोटी से छोटी गलती पर भी सज़ा मिलना लाज़मी होता था | गाली गुप्तारी तो आम बात थी और सजी भी कैसी जिसे देख कर दिल दहल जाये | कई दफा तो सुधांशु को सारा सारा दिन मुर्गा बनाये रखते थे | न खाना न पानी वो बेचारा भी जैसे तैसे इस पीड़ा को बर्दाश्त करने लग गया था | अब उसके दिल में दादा के प्रति डर की भावना भी उत्पन्न होने लग गई थी | इतना होने के बावजूद प्यार अभी भी बरक़रार था | खेल कूद में भी लालाजी पीछे न थे | वो सुधांशु के साथ हर खेल खेला करते खासकर कैरम और शतरंज उनके प्रिये थे | कभी कभार वो ताश, लूडो या सांप सीढ़ी भी खेल लिया करते थे । पर उन दोनों का सबसे प्रिय खेल रमी होता था जिसे वो दोनों छुट्टियों में रात को घंटो खेल करते थे ।

सुधांशु अब छठी कक्षा में आ गया था | वो चीज़ों को और बर्ताव को समझने लगा था | लाला जी का बात बात पर टोकना, गाली देना और दंड देना उसे अखरने लगा था | लालाजी ने कभी भी प्यार से बैठकर उससे दो बातें नहीं की थी । परन्तु विद्रोह के बारे में सोचना उसके बस में नहीं था | लालाजी की सोच का आलम ये होता जा रहा था के वो कभी भी सुधांशु को अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करने देते थे | हर एक चीज़ उससे इतने विस्तार से बतलाते जिसे सुनते सुनते वो भी उकता जाता | बात बात पर उसे टोकना और अपनी सोच उस पर थोपने लगे थे । मन हे मन अब वो लालाजी से दूर जाने के बहाने सोचता रहता | इस् सब के चलते तीन वर्ष और बीत गए |

सुधांशु अब पंद्रह वर्ष का हो गया था | इस उम्र में बच्चों का खास ख्याल रखने की ज़रुरत होती है और उनके साथ एक दोस्ताना व्यव्हार करना लाज़मी हो जाता है | वे अपने जीवन में बदलाव की देहलीज़ पर कदम रख रहे होते हैं | बचपने से जवानी की तरफ उनका अब पहला कदम होता है | लालाजी और घर के बाकी लोग कभी भी इस बात को समझ नहीं पाए थे | सिर्फ सुधांशु की माँ इस बात को समझ रही थी पर घर में उनकी भी एक न चलती थी | बचपन की मार, अपमान, गालियाँ  और डांट डपट सह सह कर वो अपने अन्दर एक ज्वालामुखी पाले जा रहा था | पिटाई और मार के डर के साथ उसके मन में रोष भी जन्म ले चुका था । जितने जिद्दी और हठी लालाजी थे । उतना ही अड़ियल वो भी था । उसपर इतनी ज़िल्लत बर्दाश्त कर कर के वो ढीठ बनता जा रहा था । आखिर खून तो उन्ही का था । वो लालाजी से पीछे कैसे रहने वाला था । वो अपने बल पर अपनी सोच से खुद कुछ करना चाहता था । पर बात बात पर पाबन्दी, घर से बहार न निकलने देना और भेद भाव वाले व्यव्हार से वो पूर्णतः पक चुका था और एक दिन जिसका डर था वही हुआ | सुधांशु ने लालाजी को उल्टा जवाब पकड़ा दिया | क्रमशः

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